Archive for अक्टूबर 24, 2007

जीवन पर थोड़ा रंदा फेरो रे…..!

आज यूं ही घूमते-घूमते एक बढ़ई के घर के सामने से निकल रहा था। मैने देख कि वो एक खुर्दुरी लकड़ी पर लगातार रिंदा फेरता जा रहा है। मैने उससे पूछा कि “भाई यह क्या कर रहे हो?” तो उसने जवाब दिया कि ” साहब लकड़ी खुरदुरी थी तो इस पर रंदा घिस कर इसे चिकना कर रहा हूं।”

                           उसके इस जवाब को सुन कर मैं अपने रास्ते पर चल दिया। मुझे लगा कि हम सभी का जीवन भी तो इस तरह ही चलता है। प्रारंभ मे यह कितना अपरिपक्व और खुरदुरा होता है। फिर जब हम इस जीवन पर अपनी चेतना के हांथों से प्रयासों का रंदा बार-बार फेरते हैं तो यह धीरे-धीरे चिकना होता जाता है और हमें एक परिपक्वता प्राप्त होती है। यह परिपक्वता हमें जीवन की उन अद्भुत और गूढ़ अनुभूतियों का आस्वादन कराती हैं जो हमारे चित्त को आनंद प्रदान करती हैं। परंतु हम आज-कल अपने प्रयासों को पूर्ण ईमानदारी से क्रियान्वित करने मे असफल हो जाते हैं। क्यों कि क्यो हमे सदैव एक असुरक्षा का बोध रहता है और यह असुरक्षा का बोध हमे कोई भी कार्य पूर्ण ईमानदारी से नहीं करने देता। जहाँ हमारे हाँथ से ईमानदारी का दामन छूटा वहाँ हमारी सफलता की संभावनाएं क्षीण होने लगती हैं। और हम अपना सम्पूर्ण जीवन बस यूं ही व्यतीत कर देते हैं। और अंत मे सिर्फ इसी बात का क्षोभ करते हैं कि हमने अपने जीवन में कुछ भी सार्थक नहीं किया।

                 इसीलिए यह आवश्यक है कि हम जीवन की लकड़ी पर अपनी चेतना के हाथों प्रयास का रंदा फेरें जिससे हमारा जीवन भी परिपक्व और चिकना हो

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