दे रहे हैं ज़ोर जो रोमन के उपयोग पर।
वो क्या जानें योग सदा भारी पड़ता है भोग पर।
वो हैं नादाँ जो न जानें मोल मातृभाषा का।
अंत सदा ध्वंस ही होता है अति-अभिलाषा का।
परभाषा की जो करें वकालत वह भी इतना जानें,
निजिभाषा ही है चिर उत्तर मन की तृष्णाशा का।
होते हैं प्रसन्न ये देखो अपने नए प्रयोग पर।
ये क्या जानें योग सदा भारी पड़ता है भोग पर।
जिनका स्वाभिमान नहीं होता वे ऐसा कहते हैं।
ऐसे लोग सदा जीवन की मझधारों में बहते हैं।
इसी तरह के लोग नहीं बढ़ पाते जीवन पथ में,
ये लोग जहां से चलते हैं ताउम्र वहीं रहते हैं।
समझ गई है सारी दुनिया, न समझे ये लोग पर।
ये क्या जानें योग सदा भारी पड़ता है भोग पर।