Archive for अक्टूबर 23, 2007

जीवन ही मृत्यु है

वर्तमान मानव अपने को कई तरह के तरह के भय से जकड़ा हुआ पाता है जैसे असफलता का भय, असुरक्षा का भय इत्यादि। परंतु इन सभी भयों से भी बढ़ कर एक भय है जो उसे जीवन पर्यंत सालता रहता है। वह भय है मृत्यु का भय। हर व्यक्ति जानता है कि जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु सुनिश्चित है परंतु अपने अंतिम क्षणों तक वह इस अथक सत्य को झुठलाता रहता है और उसे स्वीकार नहीं कर पाता। और यही अस्वीकार का भाव उसके अंदर एक असुरक्षा के बोध को जन्म देता है जो कि सभी कष्टों एवं समस्याओं का मूल है। जो व्यक्ति अपने इस भय पर विजय प्राप्त कर लेता है उसे जीवन के समस्त कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। 

                                                         मृत्यु के बारे में यदि हम सोचें तो हम पाते हैं कि मृत्यु तो हर इंसान की मंज़िल है जीवन तो मात्र उस मंज़िल तक पहुंचने का पथ मात्र ही है। जीवन मृत्यु की एक धीमी, लंबित एवं सतत प्रक्रिया ही तो है। मृत्यु में वही क्रिया तो पूर्ण होती है जिसका आरंभ जन्म से हुआ है। और सही भी यही है कि मृत्यु का आरम्भ जन्म से ही तो होता है। तो फिर इस मृत्यु से इतना भय क्यों? क्यों न हम इस मृत्यु को भी उसी आनंद एवं हर्ष से स्वीकार करें जिस आनंद और हर्ष से हम जीवन को स्वीकार करते हैं। यदि हम एक बार मृत्यु को स्वीकारना सीख जाएंगे तो हमे जीवन मे कुछ भी स्वीकार करने मे कठिनाई नहीं होगी। और उस समय हम अपने को सर्वशक्तिमान के अधिक निकट महसूस करेंगे। हमारे छोटे-छोटे आनंद भी हमे सच्चिदानंद जैसे प्रतीत होंगे। हमें सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। हम सभी बोधित्व की अवस्था में पहुंच जाएंगे और मोक्ष को प्राप्त होंगे। और मोक्ष भी तो एक प्रकार से मृत्यु ही है।

« Previous entries