Archive for अक्टूबर 15, 2007

हास्य रस

एक दिन मुझे भी कविता लिखने का शौक चढ़ा।
तो मैं भी इस पथ पर आगे बढ़ा।
सोचा चलो सौंदर्य रस पर लिखता हूं।
आम लोगों से थोड़ा अलग दिखता हूं।
तो लिखने के लिए मैं दौड़ा-दौड़ा घर आया।
और प्रेरणा के लिए पत्नी को सामने बिठाया।
और कविता लिखनी शुरू की।
एक से बढ़कर एक उपमाएं दीं।
कविता कुछ यूं बनी:-
तेरी घनी ज़ुल्फें जैसे हों घोड़े की पूंछ।
होंठों के ऊपर तेरे हल्की मोटी मूंछ।
आवाज़ तेरी शेरनी जैसी और टमाटर से गाल।
चाल भी तेरी मस्त मस्त है ज्यों हाथी की चाल।
जैसे ही ये लाईनें हमने पत्नी को सुनाईं।
वह हम पर शेरनी सी गुर्राई।
हमने कहा भाग बेटा वर्ना तेरी शामत आई।
भागते-भागते मैं सोच रहा थी कि,
मेरी कविता से ये कैसा जादू चल गया।
मेरा सौंदर्य रस पत्नी के रौद्र रस में कैसे बदल गया।
आँखें बंद कर कर मैं दौड़ा-दौड़ा आया।
आँख खुलने पर अपने को एक मंच पर खड़ा पाया।
और जब मैने अपनी यह व्यथा वहाँ सुनाई।
तो लोगों को बड़ी ज़ोर-ज़ोर से हँसी आई।
और तब मुझे यह समझ में आया।
कि जब भी कोई दुःखी अपना दुःख,
दुनिया को सुनाता है।
तो वह खुद ही दुनिया के लिए,
हास्य रस का एक काव्य बन जाता