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(सकर्मात्मक) नज़र और नज़रिया

कभी कभी जीवन में कई ऐसी घटनाएं भी घटित हो जाती हैं जो सम्पूर्ण जीवन की दिशा ही बदल देती हैं| ये घटनाएं या तो जीवन के प्रति नज़रिये को एक दम नकारात्मक बना देती हैं या फ़िर घोर नकारात्मक नज़रिये को भी पूर्णतः सकारात्मक नज़रिये में बदल देती हैं| पर सोचने वाली बात यह है की उस एक घटना मैं ऐसा क्या ख़ास होता है जो हमारे नज़रिये को एक झटके में बदल देता है? दरअसल ऐसी घटनाएँ मूलरूप से वो घटनाएँ होती है जो किसी व्यक्ति के हृदय को गहराई में जा कर भेदती हैं| और ऐसी घटनाएं आमतौर पर हमारे मन के किसी गहरे और अनछुए पहलू पर वार करती हैं| और इसी लिए हमारे मस्तिष्क पर कहीं गहरा प्रभाव छोडती हैं| ऐसी घटनाओं का प्रभाव इतना प्रभावी होता है की वह जीवन पर्यंत तक हमारी स्मृती पटल पर अंकित रहती हैं और जब कभी भी हम किसी कार्य को करते है तो वह घटना हमें याद आ जाती है|
              परन्तु यहाँ पर एक प्रश्न और उठता है की ऐसी घटनाओं का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव किस बात पर निर्भर करता है? तो इसका सीधा सा जवाब होगा की यह सब सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे नज़रिये और हमारे पूर्वाग्रहों पर निर्भर करता है| यदि हम मूलतः सकारात्मक रवैये के व्यक्ति हैं तो हम घटनाओं मैं कहीं न कहीं सकारात्मक पहलू ढूंढ ही लेंगे और अगर हमारी मूल प्रवृती नकारात्मक है तो हम हर घटना में कहीं न कहीं नकारात्मक पहलू खोज ही लेंगे चाहे वह घटना कितनी भे अच्छी क्यों न हो|
                        यहीं चीजों को देखने का एक नज़रिया और है जो सकारात्मक और नकारात्मक से बहुत अलग है और जिसे हम सकर्मात्मक नज़रिया कह सकते हैं| जैसे कोई कहता है की गिलास आधा खाली है कोई कहता है की गिलास आधा भरा है पर वहीं जो तीसरे तरह के नज़रिये का इंसान कहेगा की यदि थोड़ा श्रम और कर लिया जाए तो इस आधे गिलास को पूरा भरा जा सकता| और ऐसा इंसान सिर्फ़ ऐसा कहेगा ही नहीं बल्कि तुरंत इस दिशा मैं सार्थक प्रयास भी कराने लगेगा| बस यही है नज़रिया जिस पर इंसान का पूरा जीवन निर्भर रहता है|

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