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रसहीन जीवन

हम सभी लोग इस जीवन की आपाधापी में हर चीज़ को पाने की इच्छा तो रखते हैं, उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए भरसक प्रयास भी करते हैं पर जैसे ही हमारी यह इच्छाएं पूरी होती है वैसे ही दूसरी इच्छाओं के नाग अपना फन फैला लेते हैं।और हम फिर निकल पड़ते हैं। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के इस अंतहीन सफर पर। न तो हम आराम ही कर पाते हैं और न ही जीवन का रस ही ले पाते हैं।                                                           

 सारी उम्र हम बस जिस रस और आनन्द की खोज करते रहते हैं, अंत समय मे हमे यह एहसास होता है कि वह रस, वह आनन्द तो हमे मिला ही नहीं। हमने अपना सारा जीवन ही व्यर्थ गंवा दिया। इस समय हम यह भूल जाते हैं कि जीवन का सारा रस और आनन्द तो नैसर्गिकता मे है न कि भौतिकता में। हम जितना भौतिकताओं की ओर जाते हैं वैसे-वैसे प्रकृति से अलग होते जाते हैं। और प्रकृति से अलग होने के बाद रस कहां से मिलेगा।जब किसी फूल का विकास अप्राकृतिक वातावरण मे होता है तो वह रसहीन एवं गंधहीन हो जाता है। ठीक यही हाल मानव का भी होता है।

आज यदि हम पशुओं के व्यवहार पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि वे हम इंसानो से कहीं अधिक प्रसन्न एवं खुश हैं क्यों कि उन्होने अपने आप को प्रकृति से जोड़ कर रखा है और अपने आपको भौतिकताओं का गुलाम नहीं बनाया। और यदि प्रेम, भाईचारा, सौहाद्रता जैसे मानवीय गुणों के पैमानो पर तोला जाए तो ये पशु कहे जाने वाले प्राणी हम तथाकथित मनुष्यों से कही बेहतर हैं। आजकल हम लोग भोजन करते हैं, हमारा पेट भर जाता है पर हमें तृप्ति नहीं मिलती। हमारे पास सुखी रहने के लिए सारे साधन तो मौज़ूद हैं पर हम लोग प्रसन्न नहीं है। क्यों की हम लोग आज एक ऐसी अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं जिसका न तो कोई अंत है और न ही कोई अर्थ।