हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है

रातभर कोई भौंरा मचलता है
तब जाकर फूल कोई खिलता है

तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की,
एक रोटी के लिए तवा घंटों जलता है

ज़िंदगी क्या है हमसे पूछो,
जब से पैदा हुए हैं- बस चलता है

ख्वाहिशें आदमी की पहुँचने लगीं फलक तक,
हर रोज़ एक तारा कम निकलता है

मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है

3 टिप्पणियां »

  1. mehek Said:

    तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की,
    एक रोटी के लिए तवा घंटों जलता है
    bahut gehri baat bahut khub

  2. रवीन्द्र प्रभात Said:

    मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
    हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है
    अच्छा लगा पढ़कर !

  3. परमजीत बाली Said:

    बहुत बढिया!!सुन्दर रचना है।

    मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
    हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है


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